
और भाई, कुछ नया करने का मन है?
हाँ, ठीक है… वैसे भी कुछ खास करने को नहीं है।
अच्छा। चलो, तुम्हारे सामने एक पेन रखते हैं और तुम तय करो कि इसे उठाना है या नहीं।
अगर तुम चुनते हो इसे उठाने का, तो उठा लो। वरना, छोड़ दो।
इसे दस बार दोहराओ।
ठीक है, ये थोड़ा अजीब है, पर कोई बात नहीं।
[थोड़ी देर बाद]
हो गया। अब क्या?
क्या तुम अपने फैसले पहले से जानते हो?
किसने तय किया कि पेन उठाना है या नहीं?
मैंने।
क्या तुम किसी प्रभाव में थे?
यहाँ और कोई है क्या? नहीं, मैंने खुद किया।
तो, कोई प्रभाव नहीं था, और ये तुम्हारा अपना फैसला था, ठीक है?
तुम्हारी ख़ुद की इच्छा से।
हाँ, बिल्कुल।
और कितनी बार तुमने पेन उठाया?
सात बार।
क्या तुम्हें ये संख्या पहले से पता थी?
नहीं, मैंने हर बार उठाने से पहले अलग-अलग सोचा।
ठीक है, इस प्रक्रिया को दोहराओ।
हर बार देखो कि पेन उठाने का निर्णय करने से पहले ही क्या तुम्हें पता होता है कि तुम क्या निर्णय लोगे?

क्या? ये कैसे हो सकता है?
क्या तुम चाय बनाने से पहले उसे पी सकते हो?
नहीं, लेकिन मुझे कम से कम पता तो होगा कि मैं कौन सी चाय बना रहा हूँ।
हाँ, बिल्कुल।
अगर तुम ही फैसला कर रहे हो, तो तुम ये क्यों नहीं बता सकते कि तुम क्या फैसला करने वाले हो?
मुझे लगता है मैं बता सकता हूँ।
फैसला करने से पहले?
नहीं, ये तो असंभव है।
फैसला सोचने के बाद आता है; फ़ैसला सोचने का नतीजा है।
सोच पूरी होने से पहले नतीजा कैसे बता सकता हूँ?
तो, क्या फैसले लॉटरी जैसे हैं? जब तक नतीजा आ नहीं जाता, तुम्हें नहीं पता चलेगा ?
नहीं, ऐसा नहीं है।
लॉटरी तो पूरी तरह किस्मत पर चलती है; वो एकदम रहस्यमय है।
फैसले गणित का सवाल हल करने जैसे हैं। तुम्हें जवाब पहले से नहीं पता, लेकिन हल करने के बाद समझ आ जाता है।
हाँ, ये बात सही है।
मान लो हम एक सवाल हल करते हैं और उत्तर 15 आता है, तो क्या हम कहेंगे हमने 15 लिया या हमें 15 मिला?
हमें 15 मिला, जाहिर है।
लेकिन फैसले में हम हमेशा सोचते हैं कि ये कुछ ऐसा है जो हम ले सकते हैं, न कि कुछ जो हमें मिलता है या हल होता है।
और इसीलिए फैसले का नतीजा पहले से जानना जरूरी है; वरना तुम कैसे कहोगे कि तुमने उसे लिया?
क्या फैसला लिया जा सकता है?
अच्छा, एक शब्द पर इतनी चर्चा क्यों?
मान लो मैं पेन उठाने या न उठाने का फैसला “पाता” हूँ? फिर? अब क्या ज़्यादा फ़र्क़ हुआ?
लेकिन फिर तुम ये नहीं कह पाओगे कि “मैंने इस पेन को उठाने का फैसला किया”।
क्यों?
क्योंकि गणित का सवाल तर्क पर चलता है, तुम्हारी अपनी पसंद पर नहीं। 1 और 3 जोड़ने पर 4 आने में तुम्हारी पसंद कहाँ है?
ये गणित जितना सीधा नहीं है। ये तो बहुत निजी है।
हाँ, मेरी पसंद शामिल है।
और मैं यही पूछ रहा हूँ। वो पसंद कहाँ से आती है?
मुझे लगता है मेरे पिछले अनुभव से…
अगर तुम कहते हो कि मैं डायबिटीज की वजह से चीनी नहीं खाता, तो इसमें आजादी कहाँ है? तुम्हारी डायबिटीज ने फैसला किया।
मैं कहूँगा कुछ फैसले ऐसे हैं जहाँ सिर्फ तर्क काम नहीं करता।
कुछ तो बस यूं ही होता है।
उस “बस यूं ही” में तुम कहाँ हो?
पता नहीं। लेकिन ये अजीब लगता है कि अपने फैसले पहले से न जानने का मतलब है कि मैं उन्हें ले ही नहीं रहा।
अच्छा चलो, तुम बताओ। तुम कब कहोगे कि किसी ने फैसला लिया?
मुझे नहीं लगता कि फैसला कोई लेने वाली चीज है।
मुझे लगता है वो बस प्रकट होता है। ऐसे कारणों से जो हमारे नियंत्रण में नहीं।
कारण जिनके बारे में हमे पता हो भी सकता है और नहीं भी।

लेकिन फ़ैसला आख़िर में होता तो मेरे दिमाग़ में ही है ना?
तो, क्या मैं ये नहीं कह सकता कि मैंने फैसला लिया?
क्या तुम कहोगे कि तुमने दर्द बनाया क्योंकि वो तुम्हारे पेट में होता है?
नहीं, बिल्कुल नहीं। लेकिन मैं कह सकता हूँ कि मैंने दर्द महसूस किया।
ठीक वैसे ही, तुम बस इतना कह सकते हो कि तुम एक फैसले के बारे में जानते हो या उसे महसूस करते हो। तुम ये नहीं कह सकते कि तुमने उसे बनाया।
फैसला हमेशा तुम्हारे दिमाग में उभरता है। तुम्हारा उसमें कोई नियंत्रण नहीं।
क्या बिना फैसले के कोई काम हो सकता है?
तो, तुम कह रहे हो कि मेरा पेन उठाना मेरा फैसला नहीं था क्योंकि मुझे उस फ़ैसले के बारे में पहले से नहीं पता होता?
हाँ, बिल्कुल।
लेकिन मैं पहले से एक पैटर्न तय कर सकता था, जैसे हर दूसरी बार उठाना।
इस तरह मुझे अपनी अगली चाल पता होती।
तुमने बस दस फैसलों को एक फैसले में बदल दिया।
और वो पैटर्न कहाँ से आया? फिर से तुम्हारे दिमाग से।
लेकिन मैं उस पैटर्न को तोड़ सकता हूँ।
और वो भी बस एक और फैसला होगा जो दिमाग में आएगा — “इस बार पैटर्न तोड़ दूँ।”
क्या तुम पहले से जानते हो कि तुम कब पैटर्न तोड़ोगे?
नहीं, ना?
हाँ…
तो, विद्रोही होकर पैटर्न तोड़ने में भी कोई असली आजादी नहीं है। क्योंकि ये विद्रोही होने का फ़ैसला भी तुम्हारे दिमाग़ ने ही लिया है।

मैं समझ गया।
लेकिन कुछ फैसले तो मेरे दिमाग से बस यूं ही नहीं निकलते। उनमें बहुत सोच-विचार करना पड़ता है।
और वो सोच-विचार मैं करता हूँ। उस मेहनत के आधार पर, क्या मैं ये नहीं कह सकता कि मैंने कुछ तय किया?
लेकिन सोचने या न सोचने का फैसला भी एक और फैसला है, जो अपने आप आता है।
लेकिन सोचना तो एक बार का फैसला नहीं है। मेरे पास उसे बीच में छोड़ने का विकल्प है।
बीच में छोड़ना या न छोड़ना भी एक …फैसला ही है।
तो, अब क्या?
हाँ, ये फैसले हैं, तो क्या?
जैसा हमने बात की, तुम्हारे फ़ैसलों में तुम्हारी ज़रूरत नहीं। फैसला “तुमसे” नहीं आता। वो “तुम तक” आता है।
ये बस इस दिमाग की प्रक्रिया का नतीजा है, जैसे लार मुंह की ग्रंथियों का नतीजा है।
क्या तुम जानबूझकर चुन सकते हो कि कितनी लार बनानी है?
नहीं, बिल्कुल नहीं।
तो, तुम कैसे कह सकते हो कि तुम जानबूझकर कोई फैसला ले रहे हो?
तो तुम कह रहे हो… ये सब मेरा दिमाग है?
हाँ, बिल्कुल।
लेकिन क्या मैं मेरा दिमाग नहीं हूँ?
क्या तुम्हें कभी दिमाग जैसा महसूस होता है? क्या तुम्हें अरबों न्यूरॉन्स या न्यूरोट्रांसमीटर्स जैसा लगता है?

तुम्हें इन चीजों का पता भी नहीं होगा जब तक तुम इन्हें कहीं पढ़ न लो।
तो, तुम कैसे कह सकते हो कि तुम खुद को दिमाग मानते हो?
तो तुम आखिर कहना क्या चाहते हो?
मैं कह रहा हूँ कि जिन फैसलों पर तुम्हें पछतावा होता है या जिन पर तुम्हें गर्व होता है… वो तुम्हारे हैं ही नहीं।
बस एक ये चीज है जिसे “दिमाग” कहते हैं। फैसले वहाँ उभरते हैं।
लेकिन मुझे तो पहले से पता था कि मेरा दिमाग फैसले लेता है।
जब तुम “मेरा” दिमाग कहते हो, तुम्हारे मन में ये तस्वीर है:-
“एक अलग ‘मैं’ है जो इस दिमाग का इस्तेमाल करके फैसला ले रहा है। और ये ‘मैं’ वही है जिसे हम सब अपना असली स्वरूप कहते हैं।”
हाँ, कुछ ऐसा ही…
लेकिन हमने अब देखा कि ये “मैं” जो भी है, जिसे तुम अपना नाम देते हो, उसे तो फैसला तब तक पता भी नहीं जब तक वो सामने नहीं आता।
ये तुम नहीं हो जो चुन रहे हो।
ये एक दिमाग़ी प्रक्रिया है जिससे फ़ैंसले प्रकट हो रहे हैं।
तुम्हारा इसमें कोई नियंत्रण नहीं है।
तो, हाँ, तुम एक पेन भी नहीं उठा सकते।
पेन बस एक प्रक्रिया से उठता है जो अपने आप होती है।
और अगर तुम्हें लगता है कि तुमने चुना, तो वो एहसास भी उसी प्रक्रिया का ही हिस्सा है।